Friday, October 11, 2013

गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं

गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं
अभी मस्ज़िद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं

अभी रोशन हैं चाहत के दीये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवाएँ रोज़ आती हैं

कोई मरता नहीं है, हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबाएँ[1]रोज़ आती हैं

अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्ताएँ[2]रोज़ आती हैं

ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डाला
मगर उम्मीद की ठंडी हवाएँ रोज़ आती हैं


-------------Munawwar Rana

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