Friday, October 31, 2014

Hum narm pattoN ki shaakh the,magar

Hum narm pattoN ki shaakh the,magar...
kaate gaye haiN Itne, ki TALWAAR ho gaye...

Friday, October 24, 2014

कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गई


कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई

मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई

कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई

मुझे पदने वाला पढ़े भी क्या मुझे लिखने वाला लिखे भी क्या
जहाँ नाम मेरा लिखा गया वहां रोशनाई उलट गई

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी क़ामयाब न हो सकीं
 तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई,,,,,,,,




------------------Anjaan

Friday, October 17, 2014

Firkabandi hai kahi aur kahi jaten hai,


Firkabandi hai kahi aur kahi jaten hai,
Kya zamane me panpne ki yahi bate hai."

"yu saiyad bhi ho,mirza bhi ho,afgan bhi ho,
Tum sabhi kuchh ho,ye batayo kya tum musalma bhi ho

Friday, October 10, 2014

मुश्किल काम .........असगर वजाहत

मुश्किल काम .........असगर वजाहत

जब दंगे खत्म हो गये, चुनाव हो गये, जिन्हें जीतना था जीत गये, जिनकी सरकार बननी थी बन गयी, जिनके घर और जिनके जख्म भरने थे भर गये, तब दंगा करने वाली दो टीमों की एक इत्तफाकी मीटिंग हुई। मीटिंग की जगह आदर्श थी यानी शराब का ठेका- जिसे सिर्फ चंद साल पहले से ही 'मदिरालय` कहा जाने लगा था, वहां दोनों गिरोह जमा थे, पीने-पिलाने के दौरान किसी भी विषय पर बात हो सकती है, तो बातचीत ये होने लगी कि पिछले दंगों में किसने कितनी बहादुरी दिखाई, किसने कितना माल लूटा, कितने घरों में आग लगाई, कितने लोगों को मारा, कितने बम फोड़े, कितनी औरतों को कत्ल किया, कितने बच्चों की टाँगें चीरीं, कितने अजन्मे बच्चों का काम तमाम कर दिया, आदि-आदि।

मदिरालय में कभी कोई झूठ नहीं बोलता यानी वहां कही गयी बात अदालत में गीता या कुरान पर हाथ रखकर खायी गयी कसम के बराबर होती है, इसलिए यहां जो कुछ लिखा जा रहा है, सच है और सच के सिवा कुछ नहीं है। खैरियत खैरसल्ला पूछने के बाद बातचीत इस तरह शुरू हुई। पहले गिरोह के नेता ने कहा 'तुम लोग तो जन्खे हो, जन्खे. . .हमने सौ दुकानें फूंकी हैं।' दूसरे ने कहा, 'उसमें तुम्हारा कोई कमाल नहीं है। जिस दिन तुमने आग लगाई, उस दिन तेज हवा चल रही थी. . .आग तो हमने लगाई थी जिसमें तेरह आदमी जल मेरे थे।'

बात चूंकि आग में आदमियों पर आयी थी, इसलिए पहले ने कहा, 'तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं।' दूसरा बोला, 'छब्बीस मत कहो।' 'क्यों?'

'तुमने जिन छब्बीस को मारा है. . .उनमें बारह तो औरतें थीं।' यह सुनकर पहला हंसा। उसने एक पव्वा हलक में उंडेल लिया और बोला, 'गधे, तुम समझते हो औरतों को मारना आसान है?' 'हां।'

'नहीं, ये गलत है।' पहला गरजा। 'कैसे?'

'औरतों की हत्या करने के पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है. . .तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है।' 'लेकिन वे होती कमजोर हैं।'

'तुम नहीं जानते औरतें कितनी जोर से चीखती हैं. . .और किस तरह हाथ-पैर चलाती हैं. . .उस वक्त उनके शरीर में पता नहीं कहां से ताकत आ जाती है. . .' 'खैर छोड़ो, हमने कुल बाइस मारे हैं. . .आग में जलाये इसके अलावा हैं।' दूसरा बोला। पहले ने पूछा, 'बाईस में बूढे कितने थे?'

'झूठ नहीं बोलता. . .सिर्फ आठ थे।' 'बूढ़ों को मारना तो बहुत ही आसान है. . .उन्हें क्यों गिनते हो?' 'तो क्या तुम दो बूढ़ों को एक जवान के बराबर भी न गिनोगे?'

'चलो, चार बूढ़ों को एक जवान के बराबर गिन लूंगा।' 'ये तो अंधेर कर रहे हो।' 'अबे अंधेर तू कर रहा है. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तू हमारी बराबरी कर रहा है।'

दूसरा चिढ़ गया, बोला, 'तो अब तू जबान ही खुलवाना चाहता है क्या?' 'हां-हां, बोल बे. . .तुझे किसने रोका है।' 'तो कह दूं सबके सामने साफ-साफ?' 'हां. . .हां, कह दो।'

'तुमने जिन छब्बीस आदमियों को मारा है. . .उनमें ग्यारह तो रिक्शे वाले, झल्ली वाले और मजदूर थे, उनको मारना कौन-सी बहादुरी है?' 'तूने कभी रिक्शेवालों, मजदूरों को मारा है?' 'नहीं. . .मैंने कभी नहीं मारा।' वह झूठ बोला। 'अबे, तूने रिक्शे वालों, झल्ली वालों और मजदूरों को मारा होता तो ऐसा कभी न कहता।'

'क्यों?'
'पहले वे हाथ-पैर जोड़ते हैं. . .कहते हैं, बाबूजी, हमें क्यों मारते हो. . हम तो हिंदू हैं न मुसलमान. . .न हम वोट देंगे. . .न चुनाव में खड़े होंगे. . .न हम गद्दी पर बैठेंगे. . .न हम राज करेंगे. . .लेकिन बाद में जब उन्हें लग जाता है कि वो बच नहीं पायेंगे तो एक-आध को ज़ख्म़ी करके ही मरते हैं।'

दूसरे ने कहा, 'अरे, ये सब छोड़ो. . .हमने जो बाईस आदमी मारे हैं. . .उनमें दस जवान थे. . कड़ियल जवान. . . '

'जवानों को मारना सबसे आसान है।' 'कैसे? ये तुम कमाल की बात कर रहे हो!' 'सुनो. . .जवान जोश में आकर बाहर निकल आते हैं उनके सामने एक-दो नहीं पचासों आदमी होते हैं. . .हथियारों से लैस. . .एक आदमी पचास से कैसे लड़ सकता है?. . .आसानी से मारा जाता है।'

इसके बाद 'मदिरालय` में सन्नाटा छा गया, दोनों चुप हो गये। उन्होंने कुछ और पी, कुछ और खाया, कुछ बहके, फिर उन्हें धयान आया कि उनका तो आपस में कम्पटीशन चल रहा था।

पहले ने कहा, 'तुम चाहो जो कहो. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तुमने बाईस. . .' 'नहीं, यह गलत है. . .तुमने हमसे ज्यादा नहीं मारे।' दूसरा बोला। 'क्या उल्टी-सीधी बातें कर रहे हो. . .हम चार नंबरों से तुमसे आगे हैं।'

दूसरे ने ट्रम्प का पत्ता चला, 'तुम्हारे छब्बीस में बच्चे कितने थे?' 'आठ थे।' 'बस, हो गयी बात बराबर।' 'कैसे?'

'अरे, बच्चों को मारना तो बहुत आसान है, जैसे मच्छरों को मारना।' 'नहीं बेटा, नहीं. . .ये बात नहीं है. . . तुम अनाड़ी हो।' दूसरा ठहाका लगाकर बोला, 'अच्छा तो बच्चों को मारना बहुत कठिन है?' 'हां।'

'कैसे?' 'बस, है।' 'बताओ न . . '

'बताया तो. . .' 'क्या बताया?'

'यही कि बच्चों को मारना बहुत मुश्किल है. . .उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है. . .औरतों को मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल।'

'लेकिन क्यों?' 'इसलिए कि बच्चों को मारते वक्त. . .'

'हां। . .हां, बोलो रुक क्यों गये?' 'बच्चों को मारते समय. . .अपने बच्चे याद आ जाते हैं।'

असगर वजाहत


Friday, October 3, 2014

कोई जुगनू न आया खेलता-हँसता अंधेरे में,



कोई जुगनू न आया खेलता-हँसता अंधेरे में,
मैं कितनी देर तक बैठा रहा तन्हा अंधेरे में।

तुम्हारे साथ क्यों सुलगी तुम्हारे घर की दीवारें,
बुझा दो रोशनी कि सोचते रहना अंधेरे में।

अगर अंदर की थोड़ी रोशनी बाहर न आ जाती,
मैं अपने आप से टकरा गया होता अंधेरे में।

अगर खुद जल गया होता तो शायद सुबह हो जाती, 
मैं सूरज की दुआ क्यों माँगने बैठा अंधेरे में।




--------------------------Anjaan