Friday, May 30, 2014

रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है


रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा
Kaifi azmi

Friday, May 23, 2014

जुल्‍म फिर ज़ुल्‍म है, बढ़ता है तो मिट जाता है


जुल्‍म फिर ज़ुल्‍म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला

जिस्‍म मिट जाने से इन्‍सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
सॉंस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में

अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के

ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

साहिर लुधियानवी

Friday, May 16, 2014

गाली सी चुभती है औकात की बात


गाली सी चुभती है औकात की बात

दिल दिमाग सब बाद की बात
चलो करते है पेट और खुराक की बात

मेरा ऊंचाइयो से मतलब था
तुम करने लगे जिराफ की बात

कोई रहनुमा कोई फरिश्ता कोई खुदा
ये तो अपने-अपने नकाब की बात

मुल्क में अमन था, चैन था, मोहब्बत थी
फिर उठा दी किसी ने जात की बात

तुम ओहदा कह लो हैसियत कह लो
गाली सी चुभती है औकात की बात

वो बेशक न सुने बूढ़े बाप की अपने
पर टालता नहीं कभी औलाद की बात

घर होगा, बिजली, राशन, पानी होगा
नेताजी, खूब करते हो मजाक की बात

‘प्रदीप’ ये है अन्धो की बस्ती
कोई सुनता नहीं चिराग की बात – प्रदीप तिवारी

Friday, May 9, 2014

खूबसूरत हैं आँखें तेरी रात को जागना छोड़ दे


खूबसूरत हैं आँखें तेरी रात को जागना छोड़ दे
खुद ब खुद नींद आ जायेगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे॥


कोई बच्चा तड़पता है तो माँ का दम निकलता है
मगर जब माँ तड़पती है तो फिर जम जम निकलता है॥

हसन काज़मी

Friday, May 2, 2014

किसी ने जहर कहा है किसी ने शहद कहा


किसी ने जहर कहा है किसी ने शहद कहा
कोई समझ नहीं पाता है जायका मेरा

मैं चाहता था ग़ज़ल आस्मान हो जाये
मगर ज़मीन से चिपका है काफ़िया मेरा

मैं पत्थरों की तरह गूंगे सामईन में था
मुझे सुनाते रहे लोग वाकिया मेरा

बुलंदियों के सफर में ये ध्यान आता है
ज़मीन देख रही होगी रास्ता मेरा .,.,.!!!
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राहत इन्दोरी