Friday, July 25, 2014

आग से आग लगा कर वो उजाले में रहे

आग से आग लगा कर वो उजाले में रहे 
दीप से दीप जला कर हम अँधेरे में रहे 

धूप बेहतर थी ये एहसास हुआ तब हमको 
चंद पल जब किसी एहसान के साए में रहे 

आपको हमने,हमें आप ने समझा दुश्मन 
हम भी धोके में रहे आप भी धोके में रहे 

ये ख़रीदार की क़िस्मत नहीं चालाकी है 
ये जो ईमान भी तुम बेच के घाटे में रहे

कोई किरदार भी अंजाम को पहुँचा है तेरा?
कोई कब तक तेरे बेसूद फ़साने में रहे

हम तो शतरंज के मोहरे थे हमारा क्या था
हम कभी अपने कभी ग़ैर के खाने में रहे

------ओम प्रकाश नदीम

Friday, July 18, 2014

थोड़ा सा वक़्त के जो तक़ाज़े बदल गए

थोड़ा सा वक़्त के जो तक़ाज़े बदल गए 
उनके तमाम नेक इरादे बदल गए 

हम अपनी कैफ़ियत से सुबकदोश क्या हुए 
गुस्ताख़ आरज़ूओं के लहजे बदल गए 

बनना था जिनको हाल के हालात का बदल 
मैं उनसे पूछता हूँ वो कैसे बदल गए 

अब भी मक़ाम-ओ-मर्तबा अपनी जगह पे हैं 
लेकिन वहाँ पहुँचने के रस्ते बदल गए

जारी है अब भी मुर्दा रिवायात का सफ़र
मय्यत थी जिन पे सिर्फ़ वो काँधे बदल गए

ज़ाहिर करें जो बात वो ज़ाहिर न हो"नदीम"
इज़हार के वो तौर - तरीक़े बदल गए

--------ओम प्रकाश नदीम
सुबकदोश - मुक्त

Friday, July 11, 2014

कुछ समझ में नहीं आता कि मैं क्या क्या हो जाऊँ

कुछ समझ में नहीं आता कि मैं क्या क्या हो जाऊँ 
सब की ख्वाहिश है यही , उनके ही जैसा हो जाऊँ 

अब दिखावा ही मेरे जिस्म का पैराहन है 
अब अगर इसको उतारूँ तो तमाशा हो जाऊँ 

आप ने अपना बनाया तो बनाया ऐसा 
अब ये मुम्किन ही नहीं और किसी का हो जाऊँ 

तुमने पहले भी सज़ा दे के मज़ा पाया है 
तुम जो चाहो तो गुनहगार दुबारा हो जाऊँ

कुछ बड़ा और बनूँ , ऐसी तमन्ना है , मगर
और कुछ बन के बड़ा और न छोटा हो जाऊँ

फिर मेरा कोई भी सपना , न रहेगा सपना
मैं अगर काश तेरी आँख का सपना हो जाऊँ

--------ओम प्रकाश नदीम

Friday, July 4, 2014

तैरीं मोहब्बत की सज़ा में कितने ज़ुल्म उठाऊं मैं

तैरीं मोहब्बत की सज़ा में कितने ज़ुल्म उठाऊं मैं 
आह भरूँ और दर्द सहूँ चल तू ही बता मर जाऊं मैं 

दिल तो तेरी क़ुरबत में जाने कब का जल चुका है 
अब भी तुझको सुकूँ नहीं तो खुदको भी जलाऊं मैं 

***(( अय्यूब खान "बिस्मिल"))***
क़ुरबत=क़रीब होना