इसी लिए तो कुचलती है रात दिन दुनिया
हम अपना हक भी बड़ी आजिजी* से मांगते हैं
आजिजी*= विनम्र भाव
बहुत संभल के फकीरों से तव्सरा* करना
ये लोग पानी भी सूखी नदी से मांगते हैं
तव्सरा*= चर्चा
कभी ज़माना था उसकी तलब में रहते थे
और अब ये हाल है ख़ुद को उसी से मांगते हैं
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सूखे गुलाब, सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलने के सारे बहाने निकल गए
पहले तो हम बुझाते रहे अपने घर की आग
फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए
'शाहिद' हमारी आँखों का आया उसे ख़याल
जब सारे मोतियों के खज़ाने निकल गए
.......................Shahid Meer
तेरा मेरा नाम लिखा था जिन पर तूने बचपन में
उन पेड़ों से आज भी तेरे हाथ की खुशबू आती है
जिस मिटटी पर मेरी माँ ने पैर धरे थे ऐ 'शाहिद'
उस मिटटी से जन्नत के बागात की खुशबू आती है
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तुम अपनी रोशनियों पर गुरूर मत करना
चराग सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं
वो होंट सी के मेरे पूछता है चुप क्यूँ हो
किताबे जुर्म में ऐसी सजा किसी की नहीं
चराग़ जलने से पहले ही घर को लौट सकें
हमारे वास्ते इतनी सी दुआ किसी की नहीं
..............Anware Islam
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